लोगों की राय

विविध उपन्यास >> काले कारनामे

काले कारनामे

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :64
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3061
आईएसबीएन :81-8143-251-7

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

238 पाठक हैं

निराला साहित्य को पढ़ते हुए लगता है कि वे पद्य के युग में गद्य की विराट् संवेदना लेकर पैदा हुए थे। इसलिए आलोचकों ने उनके गद्य-साहित्य को काफी देर से सराहा।

Kale Karname

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

निराला साहित्य को पढ़ते हुए लगता है कि वे पद्य के युग में गद्य की विराट् संवेदना लेकर पैदा हुए थे। इसलिए आलोचकों ने उनके गद्य-साहित्य को काफी देर से सराहा।
छायावाद के उस विराट् युग में उनकी कविताओं की ही चर्चा अधिक रही। निराला का गद्य-साहित्य है भी विपुल मात्रा में। उनके कुल लघु-वृहद्। पूर्ण-अपूर्ण नौ प्रकाशित उपन्यास हैं। चार कहानी संग्रह हैं और वह आलोचना पुस्तकें हैं। इसके अलावा भी उनके दर्जनों निबंध एवं अन्य रचनाएँ हैं। निराला गद्य को ‘जीवन संग्राम की भाषाएँ कहते थे और अपने तई उन्होंने उसे कविता से कम महत्त्व कभी भी नहीं दिया, अगर अधिक नहीं दिया हो तो।

निराला के गद्य-साहित्य की एक विशिष्टता जो सहज ही अपनी ओर ध्यान खींचती है और वह यह है कि उसमें सामान्य व्यक्ति के जीवन का जश्न है। उसमें उनके जीवन का अभाव है, तो भाव भी है, शोक है तो राग भी है, लेकिन है वह सामान्य व्यक्ति का जीवन ही। अपने समकालीनों से निराला की एक और विशेषता उन्हें उनसे अलगाती है वह यह है कि सामान्य जनों का चित्रण करते हुए तटस्थ मुद्रा नहीं अपनाते। बल्कि उनसे तादातम्य स्थापित करते दिखाई देते हैं। निराला का यह ‘निजपन’ उनके चरित्र को बेजोड़ बना देता है उन्हें अपने समय से आगे का रचनाकार ठहराता दिखाई देता है।
निराला के उपन्यासों को पढ़ते हुए यह लगता है कि मानो वे गद्य के समस्त संभावनाओं की छान-बीन कर रहे हों, उनके उपन्यासों में ज्यादा चर्चा कुल्ली भाट विल्लेसुर बकरिहा आदि की ही होती है ‘काले कारनामे’ का कोई ज़िक्र नहीं आता। यह एक ऐसा उपन्यास है जो इसका प्रमाण है कि निराला के गद्य में विविधता कितनी थी और उनका ‘रेंज’ क्या था। ‘काले कारनामे’ पढ़ना असल में निराला के एक नए पाठ से गुजरना भी है। एक अलग पाठ से।

 

एक

 

 

सावन, का महीना आँख पर तरी बरसा रहा। खेत लहालोट है, हरे-भरे, ज्वार, अरहर, उड़द, सन, मक्का और धान लहरा रहे हैं। आम, जामुन के दूर तक फैले हुए बागीचे फल दे चुके हैं, इस समय विश्राम की साँस ले रहे हैं। चिड़ियों के पर भीगे हुए हैं। फड़का कर पानी झाड़ लेती हैं और मधुर-मधुर चहकती हुई, इस पेड़ से उस पेड़ पर उड़ जाती हैं; नीचे टिड्डे जैसे कीड़ों पर नजर रखती हुई बुलबुल, गलार, पिड़की, रुकमिन, सतभैये, कोयल, पपीहा, कबूतर और बरसात की बगले की जात वाली अनेक प्रकार की चिड़ियाँ, तालाब के किनारे के ऊँचे पीपल और इमली के पेड़ पर बसेरा लिये हुए। ताल पर सिंघाड़े की बेल फैलती है। लड़के अखाड़े कूदते हुए। औरतें काम-काज से घर और बाहर आती-जाती हुईं। गाँव में चहल-पहल। हिंडोले पड़े हुए। लड़कियाँ झूलती हुईं। कजली, सावन, बारहमासी गाती हुईं। मर्द रात को रोज होते हुए आल्हे की कड़ियाँ गाते कन्धे पर लट्ठ रखे तम्बाकू ठोंकते हुए आते-जाते। गलियारे में पानी भरा हुआ। मेड़ के ऊपर से लोगों की निकली हुई पगदंडी, वह भी पानी बरस जाने से बिछलहर। कुएँ पर पनिहारियों का जमघट।

जमींदार रामराखन के पक्के मकान के खेत, बाग और पेड़ आदि के दृश्य दिखते हैं। गाँव के उत्तरी निकास पर खासा-अच्छा पक्का मकान। घर में लोगों की खासी-अच्छी संख्या। कहते हैं, इस मकान में ब्याह करते साधारण परिवार भी घबराता है। जो औरत रोटी करने के लिए चौके में जाती है, उसको दिन भर लग जाता है। जो पिसान पीसती है उनको रोज पाँच पसेरी से भी ज्यादा पीसना पड़ता है। जिनकी पानी भरने की बारी आती है उनको एक-एक वक्त पचीसों घड़े पानी खींचना पड़ता है। जिनके हवाले गोबर उठाने और गाय-भैंस दुहने का काम रहता है, उनको भी दुह कर कण्डा पाथ कर आते-आते दुपहर हो जाती है। दो नौकर कुट्टी काटने और चारा-पानी करने से फुरसत नहीं पाते। लड़के चरवाहे बागों में ढोर ले जाने वाले अलग हैं। घर भर गजी-गाढ़े से रहते हैं। मगर गाँव में इज्जत है। सबसे बड़े जमींदार हैं।

मनोहर पड़ोस के एक गाँव का रहने वाला विद्यार्थी है। भरा अच्छा बदन, गठा हुआ। इस जमींदार घराने से उसकी रिश्तेदारी है। जमींदार साहब को उसकी फूफी ब्याही हुई हैं। अपने गाँव राजपुर से वह जमींदार के गाँव सरायन रोज शाम के वक्त जोर करने के लिए पहलवान रामसिंह के अखाड़े जाता है। वहीं अहीरों से तीन पसेरी का दूध तै कर लिया है; जोर करने के बाद शक्कर मिला कर सेर-डेढ़ सेर पी लेता है और शाम की बियारी उसी रिश्तेदारी में करके सो जाता है। चार बजे उठकर गाँव चला आता है और कुछ पढ़कर स्नान-भोजन करके पास के संस्कृत पाठशाले चला जाता है। आचार्य कक्षा के दूसरे साल का विद्यार्थी है।

मनोहर के पिता बम्बई में एक सेठ के यहाँ नौकर हैं। साधारण अच्छी आमदनी है। घर में खेती-बारी होती है, बैल हैं, गाय-भैंसें हैं, गाड़ी है और स्नेहशीला महिलाएँ हैं। गाँव के लोग इनको भलेमानुस कहते हैं।
आज अखाड़े जाते हुए पहलवान रामसिंह के पड़ोसी पटियैत से चार आँखें हुई। शीलवान मनोहर को उन्होंने चंग पर चढ़ाया। कहा, ‘‘जोर कराने जा रहो हो !’’
मनोहर ने कोई जवाब न दिया। बरसात का कीचड़ बचा कर ऊँची पगडंडी से निकलने को हुआ कि पड़ोसी ने खँखारकर कहा, ‘‘वह हमारा मकान है, गलियारा भी हमारा है, गाँव में जो शोहरत है वह कही, हाँ, बदन जैसे गठीला है और रेख-उठान उम्र, हमको विश्वास है, इस ठाकुर को जोर करा देते होगे।’’
मनोहर फिर भी सब पी गया। लजीले डग आगे रखने को हुआ कि पड़ोसी ने फिर आवाज कसी-‘‘अच्छे भलेमानुस हो ! आदमी तो आदमी, मकान उठाए लिए जा रहे हो ! अरे, हम जमींदार के भी मान्य हैं, जवाब दे जाओ, नहीं तो हम उन्हीं से समझेंगे।’’ मनोहर ने कहा, ‘‘हम तो जोर करने आते हैं आपकी बात सच होती तो इन्हीं को हमारे गाँव जाना होता।’’ पड़ोसी ने कहा, ‘‘हमको मालूम है, तुम्हारे गाँव में छाया अखाड़ा नहीं है, इसलिए यहाँ तक पैज भरते हो। हमारा नाम है लीलाराम।’’

मनोहर सन्न हो गया। कुछ समझ न सका। पैर बढ़ाए गया। पड़ोसी कुछ दूर हो गया। आवाज दी, ‘‘तो फिर तुम को अपने ही घर समझ गए न, (एक बुरी मुद्रा दिखाते हुए) हकीकत समझ में आ जाएगी हम पीठ नहीं लगवाते।’’
मनोहर को आश्चर्य हुआ। मगर समझकर भी तरह दे गया। कुछ दिल धड़का, टेढ़ी खीर सीधी नहीं हुई। चुपचाप अखाड़े पहुँच कर लँगोटा बाँधा और नाली में दंड करने लगा। सौ-डेढ़ सौ दंडे कीं कि उस्ताद जी नहा कर आ गए। लालटेन जला कर अखाड़े के छप्पर में बँधी रस्सी के साथ बाँध दी गई। चौदह-पन्द्रह साल वाले लड़के अखाड़ा गोड़ चुके थे, छप्पर की थूनिया पकड़े हुए बैठक कर रहे थे। दो-तीन लड़के उसी गाँव के, उनसे कुछ बड़े, मगर मनोहर से उन्नीस, जोर करने के लिए आ गए।
उस्ताद ने लँगोटा बाँधा। पहले गाँव के बड़े लड़कों को लड़ाया। छोटे लड़के एक-दूसरे से अखाड़े के किनारे-किनारे लड़ते रहे। आखिर में उस्ताद ने मनोहर को बुलाया। मनोहर तगड़ा है। लड़ता भी अच्छा है। बम्बई जाता है तो बड़े पहलवान से जोर करता है। कई दाँव रवाँ हैं। उस्ताद सम्हले रहते हैं। मगर जोर वे मनोहर के जैसे दो-तीन को करा सकते हैं। दस्ती, उतार, लोंकान, पट, ढाक, कलाजंग, घिस्से आदि दाँव चले और कटे। ताकत में भी रामसिंह बीस थे। मनोहर को जोर करा कर हरे होने लगे।

ठंडे होकर लोगों ने अखाड़ा बिदा किया। मनोहर दूकान से आधा पाव शक्कर ले कर अहीर के घर गया। दुपट्टे में शक्कर रख कर दूसरे लोटे में दूध छान लिया और वहीं बैठे-बैठे पी गया; फिर रोज की तरह अहीर से पानी मँगवा कर दोनों लोटे धोकर दे दिए और जमींदार की हवेली के सामने पीपल के तले वाले चबूतरे पर बैठ कर पुरवैया के झोंके लेता रहा। अब तक रात एक पहर हो आई थी।

मनोहर को यहाँ कुश्ती के लिए आते अभी बहुत दिन नहीं हुए। माजरा यह है कि वह बम्बई में पिता के पास रह रहा था। संस्कृत वहीं पढ़ता था। मगर खाने-पीने का आराम रहने पर भी बम्बई का पानी उसको उतना अच्छा नहीं लगा। घर वाले साल-छ: महीने के लिए बम्बई रह आते थे, मगर दिल घर पर ही लगा रहता था। मनोहर का गाँव ऐसी जगह है, जहाँ से कस्बे की संस्कृत पाठशाला नजदीक है। घर में रहने का भी सुभीता है, इसलिए उसके पिता ने और घर वालों ने उसका घर रहना ही अच्छा समझा। रामसिंह से उसकी मुलाकात यों हुई कि निर्वाह के लिए रामसिंह कपड़े की दुकान करते थे; कस्बे के बाजार गाड़ी पर लाद कर कपड़े ले गए थे। गाँव के जमींदार के लड़के मनराखन ने कुश्ती के शौकीन मनोहर से दूर से रामसिंह को दिखाते हुए कहा, ‘‘अपने यहाँ के यह सबसे अच्छे पहलवान हैं, जोर करना चाहो तो इनसे बातचीत कर लो, फिर हम भी अच्छी तरह दाँव-पेंच सिखाने के लिए कह देंगे। हमारे रिश्तेदार होते हैं।’’
मनोहर सीधे स्वभाव का रेख-उठान युवक, रामसिंह के पास मुसकराता हुआ गया और जोर करने की बातचीत छेड़ी। सुन कर रामसिंह देखते रहे और तोल कर कहा, ‘‘अच्छी बात है आया करो।’’ इसके बाद मनराखन एकान्त में मिला और अपनी जमींदारी का राज कहकर जैसे अपनी रक्षणशीलता रामसिंह को दी। रामसिंह ने मुस्करा कर राज लेते हुए कहा, ‘‘अच्छी बात है, मगर हमारे गाँव का हिसाब है।’’

मनराखन ने कहा, ‘‘आप लोगों का हिसाब ठाकुरों के सिवा दूसरे जमींदार क्या लेंगे ! देख लिया जाएगा। असामी मोटा है। जमींदार की निगाह न रही तो किसी रोज सर हो सकता है। यों, सर किए रहिए।’’
रामसिंह का राज गाँव में एक पड़ोसी जमींदार के यहाँ था, मगर गाँव भर के छोटे जमींदारों का राज मनोहर के रिश्तेदारों के यहाँ रहता था। सरकारी मालगुजारी इन्हीं की सबसे ज्यादा थी।

मनोहर के आने पर पहले-पहल किसी ने कोई छेड़-छाड़ नहीं की, जैसे कुछ होता हुआ भी न हो रहा हो। दो-एक रोज बाद बातों ही बातों में रामसिंह ने अपने राज का इजहार किया। दूसरे जमींदार का माथा ठनका। उसने कहा, ‘‘तुम हमराज हो, किसी को जो तुम्हारा रिश्तेदार नहीं, अगर लो तो हमसे पूछ कर, क्योंकि ऐसा ही सरकार और जमींदार का कायदा है। जिस गाँव के यह हैं, वहाँ का जमींदार जिम्मेदार होगा। रात आठ-नौ के बाद जब यह आपके यहाँ से चले जाते हैं तब कहाँ जाते हैं, क्या करते हैं, किसी को नहीं मालूम। अगर कोई चोरी-डाका हो जाए तो क्या तुम इसके जिम्मेदार होगे ?’’
रामसिंह ने कहा, ‘‘यहाँ वह जो तुमसे भी बड़े जमींदार हैं इनके रिश्तेदार हैं। वहीं रात को रहते हैं। सवेरे गाँव जाते हैं। हमको इतना ही मालूम है। इनके गाँव के जमींदार हमारे रिश्तेदार हैं। राज हमारा ठाकुरों का। सर चढ़कर बातचीत की तो हजारों घोड़े मुतवावेंगे।’’
इस तरह बातचीत बढ़ते-बढ़ते बढ़ गई और गाँव भर में तरह-तरह का रंग चढ़ने लगा और उतरने लगा। मनोहर के रिश्तेदार ने गम्भीर होकर सुन लिया। लोगों की सलाह उनको पसन्द आई। रामसिंह चने होकर भाड़ कैसे फोड़ सकते हैं, उनके जमींदार की यह शिकायत उनको सही मालूम हुई। उन्होंने मतलब बैठा लिया कि किस रास्ते गुजरा जाए, गाँव के मामले में रामसिंह की मदद दूसरे गाँव से कैसे पहुँच सकती है।

मनोहर चबूतरे पर बैठे हवा ले रहा था। हवेली की चौपाल से चबूतरा दीख पड़ता है। जमींदार मनोहर के फूफा साहब उठ कर चले। मनोहर के पास आ बैठे। पहले मन लेते रहे, बहलाते रहे। यह मालूम होने पर कि मनोहर सच्चा है और रामसिंह को उस्ताद की निगाह से देखता है, उन्होंने कहा, ‘‘बच्चा ! देहात का हिसाब-किताब तुमको कम मालूम है। जमीं का जाल बिछा है। जो जमीं तुम्हारी नहीं उस पर पैर रखने का भी हक तुमको नहीं, अगर उसका जमींदार किसी सूरत से तुम्हारा रखवाला नहीं। सरकार को एक जवाब जमींदारी के अन्दर के किसी कारनामे के लिए देना पड़ता है। तुम जिस गाँव से आए हो, तुम्हारे साथ उस गाँव का राज भी आता है। उस गाँव के जमींदार का राज इस गाँव का जमींदार रियाया की हैसियत से न लेगा। जो तुम्हारे पहलवान हैं वह तुम्हारे नौकर नहीं, तुम खुद उनके यहाँ लड़ने आते हो यानी उनके मातहत हो। ऐसा होने पर जमींदार के साथ का उनका रिश्ता जाता रहता है। बर्ताव में बल पड़ता है। जमींदार से वह एक रैयत की हैसियत से नहीं पेश आ सकते। रैयत के तौर पर वह तुमको पेश करते हैं। लेकिन जमींदार तुमको नहीं ले सकता, क्योंकि तुम्हारे साथ हमारा हिसाब है, और हम जमींदार की तौहीन होने से हर तरह बचाएँगे। गर्ज यह कि हमारे रिश्तेदार की हैसियत से तुम वहाँ जा सकते हो, मगर यहाँ के जमींदार के आदमी बन कर।

कल अपने जमींदार से कह कर आना कि हम उनके आदमी हैं हमारा नाम लेकर, तब तुम्हारी समझ में बात आ जाएगी। इस गाँव में हमारे आदमी को अपने आदमी करार नहीं दे सकते और जमींदार के आदमी को नहीं लड़ाएँगे तो क्या गुजरेगी यह उनके आगे आएगा।’’
फिर हँसते हुए दूसरी बातचीच करने लगे। मनोहर विचार में पड़ गया। उसको नया विषय मिला, नया रास्ता जिससे वह कभी नहीं गुजरा। उसको गाँव के जमींदार की बातें याद आईं, बाद को बाजार में मिलने का दृश्य एक बार फिर आँखों पर घूम गया, हकीकत बड़ी भयावनी लगने लगी। हाथ-पैर ढीले हो चले। उसने कभी नहीं सोचा, जमींदार की जात ब्रह्म-राक्षस से बढ़ कर है जिससे पीछा कभी नहीं छूटता। क्षण भर में उसके मन की दशा बदल गई। पूरा-पूरा ज्ञान इस सम्बन्ध का पा लेने के लिए उकताने लगा। इतनी भाप भर गई कि दूसरे ही दिन बम्बई रवाना हो जाने की सोचने लगा।
कुछ देर बाद एक आदमी बुलाने के लिए आया। मनोहर खाना खाने चला। घर के गैर लोगों को बाहर निकाल कर उसकी फूफी आज खुद थाली परोस कर बैठीं।
मनोहर हाथ-पैर धो कर, कुल्ला करके थाली पर बैठा। उसकी फूफी ने मुस्करा कर कहा, ‘‘क्यों रे, तू पागल है ! तुझको यहाँ लड़ना था तो हमसे कहता ?

रामसिंह आँखें क्या चढ़ाने लगा। ले-देकर एक जोड़ी बैल, एक गाड़ी और एक दो गाँठ कपड़ा। जैसा कहा, कल वैसा कर। अभी तक हम लोग चुप थे। लड़का है, खिलवाड़ है। कल सही हाल मालूम हो जाएगा। इसके बाद, जब यहाँ से जाएगा, गाँव के डाँड़ तक हमारा राज, उधर उनका।’’
मनोहर को सारी रात बेचैनी रही। पड़ा तारे गिनता रहा। बहुत दूर तक अक्ल चलती नहीं थी, फिर भी जमीन-आसमान के कुलाबे मिलाता रहा। जब ठण्डी हवा लगती थी, सोचता था, दुनिया में लोग एक-दूसरे से इस तरह क्यों नहीं मिलते कि छोटे-बड़े का भेद-भाव भूल जाए, एक-दूसरे के गले-लगे दोस्त हों, गर्दन नापने वाले दुश्मन नहीं। माजरा जैसा रंग पकड़ रहा है, आखिर तक किसी की जान से गुजर कर रहेगा।

लेटे कुछ देर हुई कि एक नौकर आया। उसने कहा, ‘‘गाँव में किसी चिड़िया को यह हाल न मालूम हो। जमींदार से कह आना दूसरे गाँव का हमारा राज हमारे रिश्तेदार के यहाँ है। यहाँ मालिक के छोटे भाई आपसे मिलेंगे। जैसा-जैसा कहें करते जाइगा।’’ यह कहकर वह चला गया।
मनोहर फिर करवटें बदलने लगा। पुरवाई के झोंके कभी-कभी झाड़ियों की खुशबू से लदे मस्त करते हुए आने लगे। आल्हा की धुन सुन पड़ने लगी। साथ ढोलक बज रही थी। कुछ देर बाद मनोहर अपनी उधेड़-बुन में आ गया। जैसे भूल-भुलैयों में पड़ गया हो, निकलने का रास्ता न पा रहा हो। जी उकताने लगा। आँखों पर रात पार हो गई। पौ फटने की सूरत नजर आई। वह उठ कर गाँव को चला।


दो

 


जब घर आया तब भी चक्कियाँ चल रही थीं। ढोर नहीं छूटे थे। पनहारिनें पानी को नहीं निकली थीं। गाँव के बाहर एकाध स्यार तब भी चक्कर काट रहे थे। घरों के दरवाजे नहीं खुले थे। मनोहर रात भर का जागा था। किसी को आवाज नहीं दी। चौपाल की खाली चारपाई डाल कर लेट गया। देखते-देखते आँख लग गई। आज पाठशाला जाने की उतावली न थी। घर की तरफ से न निश्चय था, न अनिश्चय। बम्बई जाएगा या घर रहेगा, फैसला न कर सका था।

घर के लोगों ने उठ कर उसको लेटा हुआ देखा, तो जगाया नहीं। उसकी अम्मा को कुछ झिझक हुई, मगर वह भी जगने तक मुँह दबाये रहीं। दिन का काम, पीसना, भैंस लगाना, कण्डे पाथना, पानी भरना, रोटी करना आदि होता रहा। कभी-कभी मनोहर के सोते रहने पर फब्तियाँ चलती रहीं। जब जगा तब दुपहर थी। नींद के आ जाने से बदन हलका हो गया। जंगल गया और दातोन के लिए नीम का एक गोजाह ले कर लौटा। फिर डोल, लोटा, डोर और धोती ले कर पक्के कुएँ को चला। नहा-धो कर घर लौटा, मकान के भीतर देवता को प्रणाम करने गया, कुछ देर बैठा माला जपता रहा फिर चन्दन लगाए हुए लौटा और चौके को गया। उसकी माता ने थाली परोस दी और बैठी मक्खियाँ उड़ाती रही। जब आधा भोजन कर चुका, एक गिलास पानी पी लिया, तब उसकी माता ने पूछा, ‘‘क्यों भैया, आज आते ही सो गए ? पाठशाला नहीं गए ?’’
मनोहर ने जवाब दिया, ‘‘कुछ ऐसा ही पेंच पड़ गया है। तुमसे कहूँगा बड़ी बात नहीं, एक बतंगड़ है।’’

माँ मुँह देखती रही। आग्रह आँख से फूट कर निकल रहा था। मनोहर ने भोजन समाप्त किया। हाथ-मुँह धोए, कुल्ले किए। माँ ताक पर थीं इसलिए घर की खिड़की से गोंड़े की तरफ गया, इशारे से माँ को बुला कर।
उधर चारों तरफ से चारदीवार, बीच में तीन-चार नीम के पेड़ हैं, छाया किए हुए। दो-एक चारपाइयाँ पड़ी हैं। औरतों के विश्राम की जगह है। बाहर से कोई देख नहीं सकता। जैसे छोटा नीम का एक बगीचा हो। एक तरफ एक कुआँ है। पानी खारा होने के कारण चौका-टहल और नहाने-धोने के ही काम में लाया जाता है। खुली जगह होने के कारण पुरवाई के विरामपूर्ण झोंके आ रहे हैं। नीमों पर चिड़ियों की चहक दिन भर सुन पड़ती है।

मनोहर पड़ी हुई चारपाई पर बैठ गया। माँ भी एक किनारे आकर बैठी। सशंकित दृष्टि से माँ को देखता हुआ कुल हाल मनोहर धीरे-धीरे बयान कर गया। माँ ने कहा, ‘‘बाहर की बात है, घर के पुरखे यहाँ है नहीं, इसलिए ननदोई जी का कहना ही करना चाहिए।’’
मनोहर ने कहा, ‘‘अम्मा ! बात यह बड़ी पेचीदी जान पड़ती है। हम किसी अधिकार के आदमी हों, हमारे रक्षण के कोई नियम हों, उनका पालन होना जरूरी है, इस बात से इसका विरोध जाहिर होता है। ऐसी ही बात बम्बई में गुजरी, जिसके कारण हम लोगों को यहाँ चला आना पड़ा। किराए के जिस मकान में रहिए, किराया देते रहने पर भी जैसे अपना कोई स्वत्व न हो। पिता जी जहाँ नौकर हैं, वहाँ माह-माह करने और तनख्वाह लेने के अलावा उनकी व्यक्तिगत कोई जिम्मेदारी नहीं। स्वत्वाधिकारी सेठ भी है जिनके वे नौकर हैं। किराए के मकान में स्वत्वाधिकार जमींदार का है जिसका वह मकान है। हमारा समाज इस तरह स्वत्वहीन गुलामों का एक समाज हो रहा है, और यह ब्राह्मणत्व ! इस पर भी तरह-तरह से नीचा देखने की नौबत आती है। अब इतर जन सर उठाने लगे हैं। हमारी अवमानना समाज की उन्नति का पहला साधन हो रही है। दूसरे हमारा ब्राह्माण्त्व हमारी एक छोटी-सी पहिचान के सिवा, एक छोटे से दायरे में आ जाने के सिवा कोई ताकत नहीं रखता-दूसरे प्रान्तों में हम शूद्रों से भी बदतर समझे जाते हैं। आपको मालूम हो कि मकान-मालिक के इतर विचार के कारण हमने सर उठाया था, जिससे नीचा देखना पड़ा। समाज में उसकी ब्राह्मण के लिए हुई मान्यता उसके पुरोहित के हक में गई थी। हम जैसे ब्रह्माण हीन रहे हों। जाति की आँखों में जातिगत अभिमान नहीं रहा। इस तरह आदमी लगा कर दूसरे का स्वत्व खींचना आदमी का अपमान है जिससे हमको सर उठाना पड़ा। तुमको भी कितना नीचा दिखाया जब उसने अपनी जुबान से अपनी ब्राह्मणी लगा कर कहा, हमारे घर में पूजा-दान के समय इन्हीं का मान है, तुम्हारा नहीं, तुम कौन हो कौन नहीं, हमको क्या ज्ञान ! उस मकान में रह कर बेइज्जती सर किए रहने से बाज आए। मकान छोड़ कर चले आए। यहाँ वही माजरा है। अब अगर फिर किसी कारण से हमको गाँव छोड़कर बम्बई जाना पड़ा तो हम कौन-सा मुँह ले कर जाएँगे।’’

माता ने सुन लिया। देखते-देखते उनके हृदय की सिंहनी ने जैसे ऊपर को छलाँग मारी, उनका सर तमाम आदमियों के ऊपर उठ गया। बड़े ही स्नेह तथा गम्भीरता के स्वर से उन्होंने कहा, ‘‘बेटा मुझको विश्वास है कि तू मेरे दूध की लाज रखेगा और इन कामों की तह तक पहुँच कर उनकी जंजीर तोड़ने के काम आएगा। अभी तो कच्चा बच्चा है। इन तमाम लांछनों को चुपचाप सर उठाए हुए तैयार होता कि एक वक्त तू इनकी जड़ें काटे। दूसरा कोई चारा नहीं। हम एक मुद्दत से यह कसाले झेल रहे हैं। माँ से बेटे को बिरासत में जो बातें मिलती हैं, वे हमारे कौम की गर्दन झुका देने वाली हैं। मुसलमानी जमाने से जो अपमान होते आए हैं, बेटे, तू अभी बच्चा है, तुझसे कहने-लायक नहीं, सिर्फ तैयार होता जा कि माँ के सपूत का जवाब दे-वे बातें दुधारी तलवार हैं, मत समझ कि तेरी माँ, तेरी बहन एक धर्म के रिश्ता के सिवा और कुछ रखती हैं। मजबूरी के सिवा मरदों के हाथों उनके और भी जो अपमान होते हैं वे सैकड़ों बिच्छुओं के डंक मारने से ज्यादा जलन वाले और जहरीले हैं। मरदों की आँख के नीचे उनके अपमान हुए हैं और मरदों के हाथ-पैर नहीं चले। हम पीढ़ियाँ लिख रखते हैं। हमारी माँ का कहना था सौ पीढ़ियाँ बीत चुकी हैं, यह तैंतालीसवीं पीढ़ी के बाद हम उसको भगवान को अर्पण कर देते हैं और बाकी पीढ़ियाँ चलती ई बाँधे रहती हैं। यही कामना दिन-रात रहती है कि नारियों का अपमान है, हे भगवान, बदला चुकाओ। सिर्फ बदले की आग धधकती है।’’

मनोहर चुपचाप सुनता रहा। कहा, ‘‘माँ मैं तुम्हारा योग्य-पुत्र होने की कोशिश करूँगा।’’
कह कर वह उठ खड़ा हुआ और बाहर चला गया।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book